दौलत-शोहरत के मध्य एक पहचान ये भी है, ये कविता एक साहूकार के आंतरिक प्रतिविम्ब को दर्शाता है,
तू मुझसा बन सकता है नहीं, न मैं तुझसा बन सकता हूँ,
हुनर ये तेरा तुझे दे शोभा, क्यों ये मैं नहीं कर सकता हूँ,
प्रसिद्ध हुआ प्रतिष्टा पायी, ये तेरा अभिमान हुआ,
क्या से क्या तू बदल गया है क्यों इतना बेईमान हुआ,
तेरे हस्त करे अब मुद्रा मंथन, तेरे वचन बंद नए नियम बने,
तुझमे लक्षण रब के देखे, दर्शन अभिलाषी चापलूस बने,
खुद को तू हितकारी कहता, सबका ही न्याधीश हुआ,
पर जिससे तुझे लाभ मिलेगा, तू उसका ही जगदीश हुआ,
तुझमे करुण भाव नहीं अब,व्यापारी बना हृदयहीन हुआ,
दरिद्रता का अपमान करे, तू क्या जाने कितना दीन हुआ,
शोहरत तेरी अमूल्य धरोहर, ध्यान तेरा ये ज्ञान धरे,
राजा रंक बने दुर्भागी, अनन्त जपे फिर हरे-हरे,
प्रशिद्ध पताका लहराता तेरा, हवा थमे भयभीत हो तू,
हुनर किसीका प्रकाशित हो तो, और अधिक भयभीत हो तू,
ज्ञात है तुझको एक वस्त्र कफ़न है, तिजोरी भरता रहता है,
पूत-सपूत ही बैरी होते, तो क्यों चोरी करता रहता है?,
मेरा भय बस इतना है कि मेरा कभी अपमान न हो,
कर्तव्यनिष्ठ बना रहूँ मैं, परवाह नहीं अगर सम्मान न हो,
जिसके भाग्य मैं जो कुछ होगा वो उसको मिल जाएगा,
प्रयास वो तेरे विफल ही होंगे, तू अंकुश लगा न पायेगा,
वरुण पंवार