बहिन का दर्द और भाई की चिंता,समय बलवान होता है, तकदीर बदलने में वक्त नहीं लगता एक महिला जब तकदीर की बदोलत शहर से गाँव में जा रहती है, तो उसके भाई की चिंता कुछ इस प्रकार होती है
बहिन से बढ़कर है वो जिसे मैं माँ समझ कर पूजता हूँ ,
जब भी गलती करते हम उसकी उस मार से सुधर जाते थे,
आंसूं तर-तर बहते थे और हम उस पर बिलक जाते थे,
अब भी जब कभी गलती होती, जाने क्यों मैं उसे खोजता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,
उसकी चन्द वर्षो की तपस्या, अब हमारी जिन्दगी बन गयी,
वो चली गयी जो घर अपने, खुदा की वो बंदगी बन गयी,
मगर क्यों ठोकार ही लिखी हैं तकदीर में उसके ये मैं सोचता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,
हमारी एक ख़ुशी के बदले उसे दोगुना दर्द मिल गया,
हमें सीने से लगा कर पाला और अपने बच्चो से ही किनारा कर लिया,
माँ की ममता का अधिकार क्या उनको नहीं ये मैं सोचता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,
क्या घर था क्या बाहर था सब अपना ही संसार था,
MA, BA की उन डिग्री को उन खेतों का इंतज़ार था,
पढने लिखने से बढ़कर मैं उसके माथे की लकीरें देखता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,
जहाँ कलम और किताब अब दराती और धान बन गयी,
एक देश चलाने वाली महिला गाँव की प्रधान बन गयी,
उससे जुड़े उस गाँव को भी मैं दिल से पूजता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,
मिटटी पत्थर से जुड़ने वाली आज सारे पहाड़ खोदती है,
फर्श पे बेठे पढने वाली उन खेतों में अपनी तकदीर खोजती है,
रब भी कितना निर्दय हुआ, अब मैं उसे कोसता हूँ ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,
वरुण पंवार
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