मैं हूँ क्या एक पत्थर दरिया का , डूबा हूँ उसमे एक जलधारा की तरह,
पत्थर दरिया का
वरुण पंवार
बरसता रहा मुझपर प्यार उसका और घुलता रहा मैं मिटटी की तरह,
आज इतना घुल गया हूँ कि अस्तित्व मेरा क्या रहा,
दे किनारे फेंक मुझको न वो मेरी न मैं उसका रहा,
अब तडपता हूँ किनारे कि एक लहर मुझ पर गिरे,
टूट कर फिर बिखर जाऊं मेरा कण कण उसमें मिले,
झुलस गया हूँ मैं किनारे वो मुझे तरसाती रही,
बूंद बूंद बारिश कि मुझमे आस एक जगाती रही,
साहिल की मिटटी रेत ने आँचल बना कर मुझे ढक लिया,
कह दिया कि ये मेरा है अपनी बाँहों में कस लिया,
तूफ़ान आया आँचल उडाया,
होंसले बुलंद करके क्यों मुझे हिला न पाया,
मैं दरिया का पत्थर बनकर पत्थर दिल बन गया हूँ अब,
मुझसे अब कोई जहाँ क्या खुद में खुद मिल गया हूँ अब,
पत्थर दरिया का
वरुण पंवार
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