गुरु शहस्त्र गुरुबानी बोले गुरु ग्रन्थ का दीवाना होके,
बहती धारा रही धरा पर एक चंचल मन मंदिर सा होके,
जितना तेरा हासिल उतना मेरा कुछ कुछ बाकी,
प्रभु नशा बसे रोम रोम, फिर मदिरा नशा न साकी,
कोई परिंदा उड़ता न जो नाम परिंदा भी उड़ जाता,
प्रभु रंग चढ़ जाता जिस पर, नाम वो नहीं मिट पता,
सब खजाना जग ने जाना, एक खाजाना जो पाया तो,
बिन खोजे जो मिल पाया, वो ही प्रभु को भज पाया सो,
रज-रज मोती पद-पद बिखरे जो पद चूमे सुखी हुआ,
मन जिस में घर रब का न हो, जिसमे मंदिर वो घर हुआ,
वरुण पंवार
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