"मंजिलें तेरी हैं कहाँ तक" Manzile teri hain kahan tak

किसी परिंदे से मत पूछो कि उसका आसमा कहाँ तक है, 
महज देख लो उसकी उड़ान है कहाँ तक,

मुतमईन न होना उसका हुनर देखके,
आखिर उसकी भी जमीं है हमारी जमीं तक,

वहां तो हवा का कहर ही बदल देती है मंजिले उसकी, 
देखले कितनी मज़बूत मंजिलें तेरी हैं कहाँ तक, 

दिन में ही नाप सकता है वो सफ़र अपना, 
यहाँ दिन-रात तेरी देख ले तू जाग सकता है कहाँ तक,

चुगना, उड़ना, बसेरा, चूजे, बस ये संसार हैं उसके,
इंसान है तू परिंदा बनकर रहेगा कब तक,

हर रोज़ एक नया संसार बना, कुछ नया बना,
क्यों सिमटा है इस पल में, जो बीत गया है कल तक,

वरुण पंवार

No comments: