"जुगनू हूँ मैं पल भर का"Jugnu hun main pal bhar ka

वो नज़ारा पुराना था वो बहाना पुराना था,
गर जो बात बिगड़ी है तो वो इरादा पुराना था,
बदल दी वो दुनिया बदल दी वो फितरत,
बना दो मुझे फिर नया जो शख्स पुराना था,

कोई अनजान होता ही है, कोई अनजान बन जाता है,
कोई, कोई और ही होता है, और फिर अपना बन जाता है,
तुझे पता है ये शानो शोकत तेरी नहीं है फिर भी,
कोई जहाँ में घुल जाता है और कोई जहाँ भूल जाता है,

जुगनू हूँ मैं पल भर का, रहने दो मुझे शामियाने में,
डरता हूँ जिन्दगी से पर रहता हूँ आशियाने में,
कैसा सफ़र तय कर रहा हूँ इस पञ्च तत्व में रहकर,
आत्मा तड़प जाती है वो इज्ज़त कमाने में, 

वरुण पंवार

"मंजिलें तेरी हैं कहाँ तक" Manzile teri hain kahan tak

किसी परिंदे से मत पूछो कि उसका आसमा कहाँ तक है, 
महज देख लो उसकी उड़ान है कहाँ तक,

मुतमईन न होना उसका हुनर देखके,
आखिर उसकी भी जमीं है हमारी जमीं तक,

वहां तो हवा का कहर ही बदल देती है मंजिले उसकी, 
देखले कितनी मज़बूत मंजिलें तेरी हैं कहाँ तक, 

दिन में ही नाप सकता है वो सफ़र अपना, 
यहाँ दिन-रात तेरी देख ले तू जाग सकता है कहाँ तक,

चुगना, उड़ना, बसेरा, चूजे, बस ये संसार हैं उसके,
इंसान है तू परिंदा बनकर रहेगा कब तक,

हर रोज़ एक नया संसार बना, कुछ नया बना,
क्यों सिमटा है इस पल में, जो बीत गया है कल तक,

वरुण पंवार