"चुप रहते-रहते ही गुलज़ार हो गया" Chup rehte rehte gulzar ho gaya

महज देखने से करार आया तुझे, मगर प्यास मेरी अभी बुझी ही नहीं,
रास न आया कभी औपचारिक मिलना तेरा, शायद निगाहें कभी उलझी ही  नहीं,

कहते हो कि कहती हैं निगाहें आपकी, कभी तो सुना होता लफ्ज को मेरे,
चुप रहते-रहते ही गुलज़ार हो गया, रखा होता कभी हाथ भी नव्ज़ पर मेरे, 

अब शिकायत के दौर यूँ शुरू हो गए, अफ़साने तो बनाये होते मिलने के दौर में, 
क्या सोच कर याद करोगे हमें, जो घिरे रहते हो व्यस्तता के उस शोर में, 

सेर-सपाटे तेरे बस घर के उस आँगन तक ही सिमट जायेंगे, 
ये सोच के तो बढ़ा लेती कदम, कि हम लौट के फिर न आयेंगे,

दो दिन का मिलना भी फिर दो दिल का मिलना बन जाएगा,
छोड़ो फ़िज़ूल का है ये मौसम मेरा , कौन इसे समझ पायेगा, 

शायद इंतज़ार ही नहीं तुझे मेरा कि मैं पास होके भी दूर होता हूँ,
तेरे संदेशो से दिल बहलता नहीं, तुझे हर बार ये कहता हूँ, 

मेरी बेकरारी बेअसर होती गई, इंतज़ार-ऐ-मज़ा भी जाता रहा, 
निगाहें भिगोये झुकाते चला, तेरा मुस्कुराना सताता रहा,

न फ़साने, बहाने न यादों में तुम, तराने समेटे भी रहते हैं गुम,
बेकदर-बेअसर तेरा संसार ये, न कहना कभी मुझसे प्यार है, 

वरुण पंवार

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