"डर लगता है" Darr lagta hai

दुश्मनों के बीच लिए जामों से नहीं ग़मों  के बीच पिए जामों से डर लगता है,
और मुहब्बत करना एक गुनाह है इस ज़माने में, महज उसके अंजामो से डर लगता है,

कोई हमें याद करे न करे मगर, उसकी हर बार की दुआओं  से डर लगता है,
बिना सज़ा के ही कैसे कैद हो जाते हैं दो दिल उन सज़ाओं से डर लगता है,

रोक नहीं पाए खुद को मुजरिम बनाने से, अब हर इन्साफ से डर लगता है,
और कई बेकसूर आज भी मुहब्बत के अंजाम से अनजान हैं, उन इंसान से डर लगता है,

कॉलेज के प्रागंण में उसकी गैरमौजूदगी से नहीं, अपनी ही तन्हाई से डर लगता है,
कहीं मिल न जाए फिर से किसी मोड़ पर वो अब अपनी ही वफाई से डर लगता है,

दुनिया के दिखावे से नहीं, आशिकी के उन नज़ारों से डर लगता है,
बेठे रहते थे उन दीवारों के सहारे हम अब उन दीवारों से ही डर लगता है,

सर्दियों की रात में छत पर ठिठुरते हुई फ़ोन पर बात नहीं, बात न होने से डर लगता है,
और अब तो आलम ये है कि गर्मियों की रातो में उस छत पर जाने से ही डर  लगता है,

उसकी कक्षा की ओर दौड़ से नहीं, उसकी गली के उस मोड़ से डर लगता है,
अब रास्ता बदल बदल कर चलते हैं हम, उसकी तरफ जाने वाली हर रोड से डर लगता है,

वरुण पंवार 

"उठो वीर तुम खड़ग उठाओ" Utho veer tum khadag uthao

शामिल हुआ जब मैं तो वो एक भीड़ थी,
देखते-देखते ही वो सारे मेरे अपने हो गए, 

शोर फिर चीख और सन्नाटे में बदल गया,
एक हाथ मेरे हाथ में देकर एक शख्स खो गया,

दशा बयां करूँ या फिर नैन भिगोऊँ,
धड हिलाऊँ या फिर सर उठाऊँ,

पैर नहीं बस उसका हाथ ही था,
जाने से पहले वो मेरे साथ ही था, 

दहशत जीवन का एक पहलु ऐसा,
मृत्यु निश्चित तो फिर डरना कैसा,

मन-मौन यूँ कब तक मौन रहेगा,
देश है मेरा कब हर शख्स कहेगा,

दफ़न किया जो वो शर्मा था, जल गया वो खान था भाई,
हिन्दू , मुस्लिन, सिख, इसाई  देह समेट रहे हैं भाई,

देख कसाई पंडित बनकर मंदिर लूट रहा है वो, 
देख सियासी मन्त्र पड़कर भीड़ जुटा रहा है वो, 

बंद करो ये देख दिखावा, भीड़ भी तमाशीन हुई,
भेड़-चाल का जन्तर पहने, मानवता मशीन हुई,

उठो वीर तुम खड़ग उठाओ ऐसी एक हुंकार भरो, 
अमर बनो एक पुष्प खिलाओ, गद्दारों का संहार करो, 

वरुण पंवार 

"चुप रहते-रहते ही गुलज़ार हो गया" Chup rehte rehte gulzar ho gaya

महज देखने से करार आया तुझे, मगर प्यास मेरी अभी बुझी ही नहीं,
रास न आया कभी औपचारिक मिलना तेरा, शायद निगाहें कभी उलझी ही  नहीं,

कहते हो कि कहती हैं निगाहें आपकी, कभी तो सुना होता लफ्ज को मेरे,
चुप रहते-रहते ही गुलज़ार हो गया, रखा होता कभी हाथ भी नव्ज़ पर मेरे, 

अब शिकायत के दौर यूँ शुरू हो गए, अफ़साने तो बनाये होते मिलने के दौर में, 
क्या सोच कर याद करोगे हमें, जो घिरे रहते हो व्यस्तता के उस शोर में, 

सेर-सपाटे तेरे बस घर के उस आँगन तक ही सिमट जायेंगे, 
ये सोच के तो बढ़ा लेती कदम, कि हम लौट के फिर न आयेंगे,

दो दिन का मिलना भी फिर दो दिल का मिलना बन जाएगा,
छोड़ो फ़िज़ूल का है ये मौसम मेरा , कौन इसे समझ पायेगा, 

शायद इंतज़ार ही नहीं तुझे मेरा कि मैं पास होके भी दूर होता हूँ,
तेरे संदेशो से दिल बहलता नहीं, तुझे हर बार ये कहता हूँ, 

मेरी बेकरारी बेअसर होती गई, इंतज़ार-ऐ-मज़ा भी जाता रहा, 
निगाहें भिगोये झुकाते चला, तेरा मुस्कुराना सताता रहा,

न फ़साने, बहाने न यादों में तुम, तराने समेटे भी रहते हैं गुम,
बेकदर-बेअसर तेरा संसार ये, न कहना कभी मुझसे प्यार है, 

वरुण पंवार

"आशिक डूबा परिंदा है" Aashiq duba parinda hai


आशिक डूबा परिंदा है, उसे डूबा ही रहने दो,
मुहब्बत प्यार का दरिया है, उस दरिया को बहने दो,
कोई ये कह नहीं सकता परिंदा उड़ रहा होगा,
मुहब्बत चीज ही ऐसी है, कोई भी डूब जाता है,

मोहब्बत खेल का प्रांगण है, इसमें खेलते रहना
अगर जो हार होती है, तो उसको झेलते रहना,
यहाँ दुश्मन कई सारे तेरे दर्शक बने बेठे,
अगर सच्चा खिलाडी है तो एक दिन जीत जायेगा, 

यहाँ पर इश्क और किस्मत के बाज़ीगर बड़े बेठे,
बड़ी इस भीड़ में कितने, मुहब्बत को गवा बेठे,
यहाँ गिरते हैं पत्ते पेड़ से सब, जब वसंत आए,
और कुश्किस्मत उन्हें कहते हैं जो उनपे ठहर जाते हैं,

वाहन  है मुहब्बत का सवारी भी जरुरी है,
तो मंजिल पे भी जाना है तो मकसद भी जरुरी है,
अगर खाली है जो गाडी तो मंजिल पे चले जाओ,
सवारी का क्या है वो कहीं पर मिल ही जायेगी,

ये पाठ है ऐसा जिसे कोई पढ  नहीं पता,
एहसास ही डिग्री है कि उसको सब कुछ है फिर आता, 
लिखना नहीं पढ़ना नहीं जो उसकी एक हाँ है तो, 
विफलता से सफलता का वो आनंद आ ही जाएगा, 

वरुण पंवार

"बेटा तुझे उस मुकाम तक पहुंचना है" Beta tujhe us mukaam tak pahunchna hai

पिताजी  कहते हैं, बेटा तुझे उस मुकाम तक पहुंचना है,
मैंने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कह दिया जी पिताजी,

मैं बड़ा होता गया, मेरी जरूरते बढती गई, मेरा लक्ष्य भी बड़ा होता गया,
फिर जहन  में एक आवाज़ गूंजती है, बेटा  तुझे उस मुकाम तक पहुंचना है,

मैंने खुद को इस काबिल बनाया की, मैं सबको अपना कहने लगा, 
सबका दर्द समझने लगा, फिर एक आवाज़ गूंजती है, बेटा  तुझे उस मुकाम तक पहुंचना है,

मेरी हर एक पंक्ति में शब्दों का इजाफा होने लगा, क्या पता मेरा मुकाम कहाँ तक है,
जिंदगी जहाँ तक है मेरा मुकाम वहां तक है, बस मुकाम ढूँढ़ते इतना इंतज़ार हो गया है,

कि  उस शब्द का एक हिस्सा मेरे जीवन से जुड़ गया, मैं जान गया मेरा मुकाम कहाँ तक है,
पर सच्चाई के सहारे मुझे उस बुलंदी को छूना है, कि मैं भी फक्र से कह सकूँ, "बेटा तुझे उस मुकाम तक पहुंचना है"

वरुण पंवार