"एक पहचान ये भी है" Ek pehchan ye bhi hai

दौलत-शोहरत के मध्य एक पहचान ये भी है, ये कविता एक साहूकार के आंतरिक प्रतिविम्ब को दर्शाता है, 

तू मुझसा बन सकता है नहीं, न मैं तुझसा बन सकता हूँ,
हुनर ये तेरा तुझे दे शोभा, क्यों ये मैं नहीं कर सकता हूँ,

प्रसिद्ध हुआ प्रतिष्टा पायी, ये तेरा अभिमान हुआ,
क्या से क्या तू बदल गया है क्यों इतना बेईमान हुआ,

तेरे हस्त करे अब मुद्रा मंथन, तेरे वचन बंद नए नियम बने,
तुझमे लक्षण रब के देखे, दर्शन अभिलाषी चापलूस बने,

खुद को तू हितकारी कहता, सबका ही न्याधीश हुआ,
पर जिससे तुझे लाभ मिलेगा, तू उसका ही जगदीश हुआ,

तुझमे करुण भाव नहीं अब,व्यापारी बना हृदयहीन हुआ,
दरिद्रता का अपमान करे, तू क्या जाने कितना दीन हुआ,

शोहरत तेरी अमूल्य धरोहर, ध्यान तेरा ये ज्ञान धरे,
राजा रंक बने दुर्भागी, अनन्त जपे फिर हरे-हरे,

प्रशिद्ध पताका लहराता तेरा, हवा थमे भयभीत हो तू,
हुनर किसीका प्रकाशित हो तो, और अधिक भयभीत  हो तू,

ज्ञात है तुझको एक वस्त्र कफ़न है, तिजोरी भरता रहता है,
पूत-सपूत ही बैरी होते, तो क्यों चोरी करता रहता है?,

मेरा भय बस इतना है कि मेरा कभी अपमान न हो,
कर्तव्यनिष्ठ बना रहूँ मैं, परवाह नहीं अगर सम्मान न हो,

जिसके भाग्य मैं जो कुछ होगा वो उसको मिल जाएगा,
प्रयास वो तेरे विफल ही होंगे, तू अंकुश लगा न पायेगा,


वरुण पंवार 

"बहिन का दर्द और भाई की चिंता" behan ka dard or bhai ki chinta


बहिन का दर्द और भाई की चिंता,समय बलवान होता है, तकदीर बदलने में वक्त नहीं लगता एक महिला जब तकदीर की बदोलत शहर से गाँव में जा रहती है, तो उसके भाई की चिंता कुछ इस प्रकार होती है 

क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ ,
बहिन से बढ़कर है वो जिसे मैं माँ समझ कर पूजता हूँ ,

जब भी गलती करते हम उसकी उस मार से सुधर जाते थे,
आंसूं तर-तर  बहते थे और हम उस पर बिलक जाते थे,

अब भी जब कभी गलती होती, जाने क्यों मैं उसे खोजता हूँ, 
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,

उसकी चन्द वर्षो की तपस्या, अब हमारी जिन्दगी बन गयी,
वो चली गयी जो घर अपने, खुदा की वो बंदगी बन गयी,

मगर क्यों ठोकार ही लिखी हैं तकदीर में उसके ये मैं सोचता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,

हमारी एक ख़ुशी के बदले उसे दोगुना दर्द मिल गया,
हमें सीने से लगा कर पाला और अपने बच्चो से ही किनारा कर लिया,

माँ की ममता का अधिकार क्या उनको नहीं ये मैं सोचता हूँ, 
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,

क्या घर था क्या बाहर था सब अपना ही संसार था,
MA, BA की उन डिग्री को उन खेतों का इंतज़ार था,

पढने लिखने से बढ़कर मैं उसके माथे की लकीरें देखता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,

जहाँ कलम और किताब अब दराती और धान बन गयी,
एक देश चलाने वाली महिला गाँव की प्रधान बन गयी,

उससे जुड़े उस गाँव को भी मैं दिल से पूजता हूँ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ,

मिटटी पत्थर से जुड़ने वाली आज सारे पहाड़ खोदती है,
फर्श पे बेठे पढने वाली उन खेतों में अपनी तकदीर खोजती है,

रब भी कितना निर्दय हुआ, अब मैं उसे कोसता हूँ ,
फिर क्या खोया क्या पाया उसने ये मैं उससे पूछता हूँ, 

वरुण पंवार

"आतंकी हमारे हीरो" Aatanki hamare hero

आतंकियों के भेंट चढ़ गए कितने मासूम यतीम हुए,
साया एक ओझल हुआ, कौन, किसी को, वो क्या कहे,

कौन था अपना याद रहा न, विस्फोट ध्वनि प्रचंड रही,
दृश्य वो दहलाने वाला, नेत्र कहीं और नीर कहीं,

नवजात शिशु की वो बड़ी दिवाली याद रही न भुला सका,
घर आँगन में दीप जलाये, साया जला न बुझा सका,

अग्नि तन में दहक रही वो, पिघल पिघल कर उम्र घटे,
निर्दय, निठुर विधाता कितने सजदा और नामो में बंटे,

फांसी तकता, राह ताकता, VIP जेल जहाँ,
कसाब बेचारा और अमर हो गया, कुर्बानो का नाम कहाँ,

वरुण पंवार

"जाग रहे हैं" Jaag rahe hain

हमने देखी  हैं रातें जागते हुए, कुसूर न तो आँखों  का था न रातों का,
कुसूर तो हमारा था कि हम तय न कर सके कि कौन जाग रहा है ,

लोगो को हम यूँ भी कह देते कि हमे निन्द्रभाव है, 
हर वक्त सुध - बुध खोये बैठे  हैं हम, न जाने मन कहाँ भाग रहा है,   

उस  जिद को न हम छोड़ पाए, न और कोई हासिल कर सका कैसे कह देते कि हम हार गए हैं,
फिर तो मनो एक हवा का झोका आया और हम गिर गए, वाकई लगता है अब कि हम जाग रहे हैं,

वरुण पंवार